पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से...
आवेश तिवारी, नीति शुक्ला मिर्जापुर से
बरसात की बूंदों से पूरी तरह सराबोर विन्ध्याचल की गलियों में पैदल चल रही 70 साल की शांति मिश्र गली के कोने में बने एक चबूतरे की और इशारा करती हैं- “यहाँ होते थे कजरी के दंगल सारी–सारी रात, एक से बढ़कर एक अखाड़े, जिसने सुनने वालों को बाँध लिया वो जीत गया.”
अपने सुनहरे बालों पर रखे पल्ले को संभालती वो पूराने दिनों में डूब जाती हैं-“सावन चला जाता था, मगर कजरी हमारे होठों पर मौजूद रहती थी.”
मगर अब समय बदल गया. अखाड़े नहीं रहे. चबूतरों पर दुकानें उग आई हैं. गलियां अब भी भीगती हैं लेकिन कजरी की जगह फ़िल्मी गानों ने ले ली है. सिनेमा और सस्ते एल्बमों में गाने वाले न तो उसकी प्रस्तुतीकरण से जुडी तकनीक को समझ पाते हैं न तो अपनी गायकी से कजरी का रस पैदा कर पाते हैं. हाँ, सावन शुरू होते ही मंगल उत्सवों में शहनाई बजाकर किसी तरह अपना पेट पालने वालों ने अब तक कजरी को जैसे-तैसे जिन्दा कर रखा है.
मिर्जापुरी कजरी लोकगायन की एक ऐसी अद्भुत शैली थी, जिसका यौवन सैकड़ों वर्षों तक बना रहा. लेकिन अफसोस, आजादी के बाद धीमे-धीमे इसका बुढापा आ गया और अब ये मृत्युशैया पर पड़ी है.
उस्ताद बिस्मिल्ला कहा करते थे- अगर कजरी को आगे बढ़ाना हो तो उनको गाने वालों को आगे बढाओ. लेकिन उनकी बात अनसुनी रह गई. न गायक आगे बढे न कजरी. उप शास्त्रीय गायकों ने भी इसके साथ कभी न्याय नहीं किया. सिर्फ उन्ही लोगों ने इसे देश विदेश में गाया, जो खुद पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे.
कजरी मुख्य तौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, बनारस और गोरखपुर अदि जनपदों में गायी जाती रही है. सावन में गाये जाने वाली कजरी सिर्फ सिर्फ श्रृंगार या प्रेम का गीत नहीं है. इसमें राष्ट्रप्रेम, लोक-चिंतन के साथ साथ प्रकृति प्रेम भी सुनने को मिलता है. एक कजरी जो आज भी बनारस और मिर्जापुर के बच्चों-बच्चों की जुबान पर है, जिसे उस वक्त लिखा गया था जब धनिया नाम की किसी कजरी गायिका का प्रेमी, आजादी की जंग के दौरान रंगून चला गया था पर लौट कर नहीं आया-
मिर्जापुर कइलन गुलजार हो, कचौड़ी गली सून कईले बलमू/ एही मिर्जापुर से उडले जहजवा, सैयां चल गईले रंगून हो/ कचौड़ी गली.......
मिर्जापुर में गाये जाने वाली कजरी की सबसे बड़ी खासियत इसकी मिठास है. जिसमें न सिर्फ प्रेमी-प्रेमिकाओं की संवेदनाएं देखने को मिलती हैं बल्कि इनमे ननद-भाभी के संबंधों का खूबसूरत ताना-बाना तो कभी सहेलियों के बीच झूलों पर हो रही हंसी-ठिठोली भी सुनने को मिलती है. कजरी की एक बेहद विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ थी, जिसमें महिलायें एक दूसरे का हाथ पकड़ कर गोल घेरा बनाकर कजरी गाती थी, मगर अब ये कहीं नजर नहीं आती. हालांकि इन सब की अनुपस्थिति के बाद भी आज इसकी विविधता की वजह से ही ज्यादातर मंचीय गायक इसे ही गाना पसंद करते हैं-
पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया/ रंग रहे कपूरी पिया ना/ जबसे साड़ी ना लिअईबा/ तबसे जेवना ना बनईबे/ तोरे जेवना पे लगिह मजूरी पिया/ रंग रहे कपूरी पिया ना.
कजरी का प्रेम से सीधा नाता है, ये कभी विरह में आत्मभिव्यक्ति का माध्यम बनता है तो कभी प्रेमरस बरसाते हुए सब कुछ भिगो डालता है. विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है. फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का–
पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से/ जायके साइकील से ना/ पिया मेंहदी लिअहिया/ छोटकी ननदी से पिसईहा/ अपने हाथ से लगाय दा/ कांटा-कील से/ जायके साइकील से।
लोकगीतों की रानी “कजरी”सिर्फ गायकी का एक अंदाज नहीं है बल्कि इसमें प्रकृति की सुंदरता को सहेजने संजोने का सन्देश भी छुपा होता है. ये पर्यावरण को गीत संगीत से जोड़ने का अभिनव माध्यम है-
धोतिया लइदे बलम कलकतिया/जिसमें हरी- हरी पतियाँ.
कजरी की सबसे बड़ी विशेषता इसकी स्थिरता होती है. पीढ़ी दर पीढ़ी गाये जाने के बाद भी इसकी गायकी का न तो अंदाज बदलता है और ना ही इसके मूल धुन में कोई बदलाव आता है. मजेदार बात ये है कि कजरी सिर्फ गायी ही नहीं जाती, खेली भी जाती है.
मिर्जापुर में पहले के जो अखाड़े हुआ करते थे, उनमें तो इस कदर प्रतिद्वंदिता होती थी कि कभी-कभी कजरी गायन के दंगल के दौरान मारपीट तक की नौबत आ जाती थी.
सुरेंद्र कुमार की आवाज में-मिर्जापुर कइलन गुलजार हो |
मिर्जापुर के अशोक बनर्जी बताते हैं- “हमने वो दिन भी देखा है कि अखाड़ों को लेकर पूरा शहर दो भागों में बंट जाता था. बाजियां लगती थी. 20-20 किलोमीटर दूर से लोग कजरी का दंगल सुनने आते थे.”
बनारसी कजरी की खास पहचान इसमें हरे रामा और ए हरी की टेक है. देश प्रेम की भावना से ओत प्रोत इस कजरी के बारे में बताया जाता है कि नागर नाम के एक परम देश भक्त को जब अंग्रेजों ने काला पानी की सजा दे दी तब उनकी प्रियतमा ने विरह में ये कजरी लिखी-
हरे रामा सब कर नैया जाला, काशी और बिसेसर रामा
हरे रामा नागर नैया जाला काले पनिया ए हरी
“ लेकिन कजरी केवल विरह और दुख का स्वर नहीं है. ये तो उत्साह और उत्सव का गीत है. हाँ, ये जरुर है कि टीवी, विडियो, सिनेमा के साथ-साथ लोक गायकों को नजरअंदाज किये जाने से ये गीत अब सिर्फ नेपथ्य में सुनाई दे रहा है.” ये बातें कहते हुए प्रख्यात साहित्यकार और कवि एवं मिर्जापुर, बनारस एवं सोनभद्र के घुमक्कड इन्साईक्लोपीडिया अजय शेखर बीते हुए कल में खो जाते हैं.
अजय शेखर कहते हैं- “ कजरी पर्व आते ही विवाहित लड़कियां ससुराल से कजरी खेलने नैहर आ जाती थीं. चारों और झूले ही झूले दिखाई पड़ते थे. रोज-बरोज घरों में कजरी की चौपाल लगा करती थी. लेकिन अब समय बदल गया है. आज की पीढ़ी कजरी के बारे में नहीं जानती. आधुनिकता ने इन अद्भुत उत्सवों की परम्परा को खत्म कर डाला.”
सोनभद्र और मिर्जापुर में नागपंचमी के दिन लड़कियां मिटटी में जाऊ बोती हैं तथा समय समय पर सींचती हैं जिसके कारण उसमे अंकुर निकल आता है और बालियाँ निकल आती है. कजरी के दिन उन बालियों को लडकियां भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखती हैं तथा अपने नेग लेती हैं. इस नेग को जरी खोसाई कहा जाता है.
अजय शेखर बताते हैं कि कजरी गायकों के अखाड़े में पततु के अखाड़े का बहुत सम्मान था, विख्यात लोकगायक बुल्लू और शीतला प्रसाद पांडे भी इसी अखाड़े के थे. सोनभद्र में कल्लू के अखाड़े का बहुत सम्मान था. कजरी गायक अपने गायन से समाज में ऐसी चेतना जागृत करना चाहते थे कि तमाम सामाजिक बुराइयां, दहेज आदि बंद हो. वे याद करते हुए मुस्कुराते हैं –“ जब शीतला प्रसाद गाते थे, उनके एक हाथ में झांझ रहता था और दूसरा हाथ खाली रहता था, जिससे वो श्रोताओं को इंगित करते थे.”
अजय शेखर मानते हैं कि गाँवों का शहर की ओर पलायन कजरी के लुप्त होने की बड़ी वजह है. लोक गीत परम्पराओं में शामिल रहते हैं, जब परम्पराएं सुरक्षित नहीं रहेंगी तो गीत भी नहीं रहेंगे. वे कहते हैं- “एक वक्त था जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम गीतकार और कवि बकायदे कजरी लिखा करते थे, अब कजरी लिखने वाले भी नहीं रहे. न उसे सुनने वाले रहे.”
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