सोमवार, 23 अगस्त 2010

चित्रकार और इंस्टॉलेशन कलाकार सुबोध गुप्ता से गीताश्री की बातचीत

संवाद

अपने घर से ही हम सब ले कर आते हैं


युवा चित्रकार और संस्थापन यानी इंस्टॉलेशन की कला में विश्वव्यापी ख्याति अर्जित कर चुके सुबोध अपने मित्रों से वह सिर्फ मातृभाषा भोजपुरी में बात करना पसंद करते हैं. वे कहते हैं, “जब कोई भोजपुरी में बोले ला न मन परसन्न हो जा ला.” यह एक गंवई मन है जो दुनिया भर में अपनी कला की धूम मचा चुकने के बाद भी अपना देसीपन नहीं छोड़ पाया है.

सुबोध गुप्ता


पटना से दिल्ली और फिर दुनिया के दरवाजे से कला बाजार में धमाकेदार प्रवेश करने वाले सुबोध को खुद ही यकीन नहीं आता कि उनकी जिंदगी कब और कैसे एक परीकथा में बदल गई. यह सब कैसे संभव हुआ? अपने गुड़गांव स्थित कोठीनुमा स्टूडियो में लैपटॉप और अपनी कलाकृतियों के बीच बैठे सुबोध भी अपनी अप्रत्याशित सफलता को अचंभे की तरह देखते हैं. कहते हैं, “दो तीन महीने पहले ही गांव गया था. वहां जाकर लगा, क्या मैं यहीं से हूं? आश्चर्य तो होता है, क्योंकि वहां से यहां तक का सफर कठिन तो है.”


पिछले 25 सालों से कला कर्म में जुटे सुबोध 1996 से लगातार इंस्टॉलेशन कला पर काम कर रहे हैं. जीवन के अनुभवों में पक और सींझ कर यहां तक पहुंचने के बाद पीछे मुड़कर देखते हैं तो अपने पुराने परिवेश, अपने गांव, शहर, राज्य बिहार को ही अपनी प्रेरणा का अथाह समुद्र मानते हैं. वह कहते हैं, “ जिस घर को मैं छोड़ आया, वह प्रेरणा का अथाह समुद्र है. एक जन्म कम है वहां से प्रेरणा लेने के लिए.”


सुबोध के काम को देखें तो इस पर पक्का यकीन हो जाता है कि पहले वह अपने घर, फिर समाज, सारा देश और फिर दुनिया से चीजें उठाते हैं. और उसे अपनी कला के जरिए सार्वभौमिक बना देते हैं. चाहे वह गांव की पाठशाला हो या बुलेट मोटर साइकिल, सुबोध ने अपनी संस्थान कला के जरिए इन्हें दुनिया की निगाहों में प्रतिष्ठित कर दिया. यहां प्रस्तुत है उनसे की गई बातचीत के अंश.

सुबोध की एक कृति

अपनी कला यात्रा को कैसे देखते हैं? पटना से दिल्ली और फिर अंतर्राष्ट्रीय कला बाजार तक बड़ी लंबी और कठिन यात्रा रही होगी?


सच्चाई को क्या याद करना. ये भी एक सच है, वो भी एक सच था. तब भी एक जिंदगी थी उसका अपना मिजाज था,यह यच है कि आज रूतबा है. एक यथार्थ से निकलकर दूसरे यथार्थ तक पहुंचने की यात्रा है मेरी. मैं मेहनत तब भी करता था, अब भी करता हूं. ये जरूर है कि मेहनत अब रंग लाई. मुझे उस पुरानी मेहनत का फल अब मिला है. आगे ऐसी ही जारी रहे यात्रा तो सुकुन वाली बात होगी.

आपकी पत्नी भारती खेर भी चित्रकार हैं. लेकिन आप उनसे ज्यादा कामयाब हैं. एक साथ, एक तरह के काम करने वाले लोग सफर में कैसे आगे-पीछे रह जाते हैं?

मैं भारती से पहले से काम कर रहा हूं. दस साल लगे मुझे कामयाब होने में. ये सच है कि भारती को लोकप्रियता कम मिली. मगर वह भी कामयाब चित्रकार है. अगर आप लोकप्रिय नहीं हैं, इसका ये मतलब नहीं कि आपका काम कमजोर है. ऐसे कई लोग हैं, जो आज अच्छा काम कर रहे है और उनकी कला की एक भी प्रदर्शनी नहीं लगी. भारती बेहतरीन कलाकार है. भारती या अन्य किसी कलाकार की एक दूसरे से तुलना नहीं होनी चाहिए. सबकी अलग पहचान होती है.

आपको समकालीनों की तुलना में अपना लक्ष्य पहले कैसे मिल गया?


मेरा फोकस बहुत साफ था. समय बदलते रहे, मगर मेरा फोकस बरकरार रहा. अभी भी है. किसी भी काम के लिए लक्ष्य पहले तय करना जरूरी है. आपका निशाना सही होना चाहिए. अगर आपके अंदर कुछ करने की क्षमता है तो कोशिश करने पर लक्ष्य जरूर हासिल होता है- मैंने हासिल किया.

जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो एक छोटे शहर का क्या योगदान नजर आता है? वहां का माहौल, वहां का समाज, सुख-दुख उन सबने आपको कुछ दिया होगा. उनसे आपने क्या और कितना हासिल किया?


मैंने अपने परिवेश में सुख-दुख दोनों देखा है. दुख ज्यादा देख, सुख कम. लेकिन परिवार ठीक था. इसलिए प्यार बहुत मिला. एक हिंदू परिवार में पैदा होने के कारण जो सामान्य हिंदू परिवार की संस्कृति होती है, रोजमर्रा की जिंदगी में उनका जो सांस्कृतिक कर्म होता है, वो सब मुझे विरासत में मिले. उस संस्कृति के बीच पला, बड़ा हुआ, वो मेरे लिए बहुत मायने रखता है. इसका महत्व मुझे तब पता चला जब मैं दिल्ली आया. पीछे मुड़कर देखा तो क्या पाया? मैंने पाया कि संस्कार या जो चीजें मुझे विरासत में मिली है उसे पाने और समझने के लिए लोगों को बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है. लेकिन मैंने जीवन के अनुभवों में पक-सीझ कर हासिल कर लिया. जब मैं उस दौर के जीवन को जी रहा था, तब पता नहीं था कि इसका क्या होगा? मुझे उन्हीं दिनों से आज की रोशनी मिली है दुनिया क्या और कैसी है, ये मुझे उन्हीं दिनों ने बताया. एक कलाकार होने के नाते पता चला कि हमारी भूमिका क्या है? जिस घर को मैं छोड़ आया हूं वह प्रेरणा और अनुभव का अथाह समुद्र है. हम अपने ही घर से विचार, उनका बुना हुआ समाज, प्रेम, घृणा, अलग मिजाज सब लेकर आते हैं. हम जैसे कलाकार पहले घर, फिर समाज और फिर देश-दुनिया से चीजें उठाते हैं.

आज आपकी कला की पश्चिमी कला बाजार में खूब मांग है. भारतीय कला बाजार में कैसा रिस्पांस है?

एक वर्ग है, समाज में जो कला पहचानते है. वे खास तरह के लोग हैं. मेरे चाहने वाले यहां भी हैं, वहां भी हैं. आमलोग कला से थोड़ा दूर ही रहते हैं. हालांकि उन्हें भी यह हक बनता है कि वे कला को देखें, खरीदे या ना खरीदें.

आपने कला के लिए जिस माहौल की बात की. आपने उस माहौल को अपनी कला में कैसे रूपांतरित किया है?

यहां पर मैं एक लेखक का उदाहरण दूंगा. प्रेमचंद की कहानियां देखें- हामिद का चिमटा, जैसी सशक्त कहानी, बिना अपने माहौल को एक्सप्लाएट किए संभव नहीं थी. लेखक ने अपने पास की चीजों को जिस तरीके से दिखाया, छोटी-छोटी कहानियों में उसी तरह एक कलाकार अपने आस-पास के जीवन को एक सच्चाई के साथ बुनता है. हालांकि लेखन और कला दोनों का अलग संवाद होता है अपने माहौल से. कला में जो माहौल रूपांतरित होकर आता है उसे समझना थोड़ा मुश्किल लेखन की तुलना में होता है. अगर आप सही तरीके से चीजों को ढाले तो आप सफल कलाकार हैं.

पहले आप पेंटिंग करते थे फिर इंस्टॉलेशन और अब मूर्तिकला में भी रम रहे है. ये तीन दुनियाओं में आपकी आवाजाही किसी खास मकसद से है या आपका मन हुआ?

आज के दौर में कला की परिभाषा बदल गई है. कला करने और दिखाने का तरीका बदल गया है. उदाहरण के तौर पर देखें. आज एक कलाकार स्थापन कला करता है तो उसमें वीडियों, पेंटिंग, मूर्ति कला का समावेश होता है जहां कई कलाएं मिल जाएं- वहां इंस्टॉलेशन कला जन्म लेती है. अब कला का कैनवस बड़ा हो गया है. चीजें आपस में सिकुड़ गई हैं. तमाम चीजों के आपस में मिलने से कैनवस बड़ा हो गया है. आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां दुनिया कभी भी ठप्प हो जाए. ऐसे में हम 19वीं सदी के रोमांस को लेकर क्यों जीएं.

सुबोध गुप्ता की कृति


आप जिस तरह के बड़े और विशालकाय इंस्टॉलेशन बना रहे है उन्हें देखकर लगता है कि कई और भी लोगों ने भी इसमें काम किया होगा. कला में इन दिनों कारीगरों के ऊपर निर्भरता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है?

मैं कलाकार हूं, पर खुद अपना काम नहीं करता. हमारी सोच ही हमारी कला है. इसका ये मतलब नहीं कि मुझे काम करना नहीं आता. मैं मूर्ति नहीं बना सकता, पर बनाता हूं, बनवाता हूं. आब्जेक्ट तैयार करता हूं. बहुत से लोगों को आश्चर्य होता है कि आज कला बनती कैसे है? मैं बताता हूं, लोगों को अपने काम के जरिए.

अब आपको अपनी एक इंस्टॉलेशन के बारे में बताता हूं. जापानी खाना 'सुशी' बहुत लोकप्रिय है. मैंने उसकी अवधारणा पर काम किया 'सुशी' के लिए एक खास बेल्ट होती है जो भारत में नहीं मिलती. मैंने वहां से मंगवाया. वे चौंक गए- आप क्या करोगे इनका? मैंने कहा- चिंता मत करो, रेस्टॉरेंट नहीं खोलूंगा.

सिंगापुर में था उन दिनों. वहां एक डिजाइन तैयार किया. जैसे शहर घूम रहा हो... . उसमें जो सामान इस्तेमाल हुआ जैसे टिफिन बॉक्स, बेल्ट, ये सब मैंने तो नहीं बनाए ना. सिर्फ मैंने सोचा कि इनका इस्तेमाल कैसे किया जाए और एक विचार देकर उन्हें कलाकृति में तब्दील कर दिया.

क्या है इंस्टॉलेशन आर्ट

आधुनिक कला की जटिलताओं के बीच आखिर इंस्टॉलेशन आर्ट है क्या चीज? दरअसल इंस्टॉलेशन में आज पेंटिंग प्रिंट, वीडियों रेखांकन, मूर्तिशिल्प
जैसी कोई भी चीज चुनी जा सकती है. इनका मुक्त इस्तेमाल किया जाता है. कुछ चीजें क्रिएट की जाती हैं और कुछ ऑब्जेक्ट ज्यों के त्यों कहीं से उठाकर गैलरी या इंस्टॉलेशन के स्पेस में रख दिए जाते है.

नवें दशक के शुरुवात में पश्चिम के कई देशों में इंस्टॉलेशन आर्ट धीरे-धीरे लोकप्रिय हुई थी और वर्ष 2005 में पूरी तरह छा गई. 2005 में ही युवा भारतीय कलाकार सुबोध गुप्ता का विशाल इंस्टॉलेशन 'किरी' (1248-75-300 सेंटीमीटर) वेनिस बिनाले का एक प्रमुख आकर्षण था. स्टेनलेस स्टील के बर्तन एक खास तरह से संयोजित थे. ऊपर डब्बे, थालियां वगैरह थीं. नीचे टिफिन, कलछी, वगैरह टंगे हुए थे. मध्यवर्गीय भारतीय मानसिकता के लिए यह एक बहुत परिचित छवि थी. पर सुबोध गुप्ता ने इस छवि का स्मरणीय इस्तेमाल किया था.

मशहूर और विवादास्पद पेंटर मकबूल फिदा हुसैन भी एक बड़ी कला दीर्घा में सिर्फ कागज ही कागज बिखेर कर श्वेतांबरी नाम से एक इंस्टॉलेशन बना चुके हैं. विवान सुदंरम ने तो इंस्टॉलेशन आर्ट में इतनी अधिक दिलचस्पी दिखाई कि उन्होंने गुड ओल्ड पेंटिंग को हमेशा के लिए छोड़ दिया. 1993 में विवान ने बाबरी मस्जिद के ढहने पर मेमोरियल नाम से मूर्तिशिल्प और फोटोग्राफ्स का एक ऐतिहासिक महत्व का इंस्टॉलेशन बनाया और हाल में वर्ष 2008 में ट्रैश नाम से अपने नए इंस्टॉलेशन तक की उनकी यात्रा भारतीय इंस्टॉलेशन आर्ट में अद्भुत कही जाएगी. आज रणवीर सिंह कालेका, नलिनी मलानी, अनिता दुबे आदि कई कलाकार इंस्टॉलेशन आर्ट की दुनिया में अच्छा काम कर रहे हैं. इंस्टॉलेशन में मैटीरियल की विविधता भी होती है और चुनौती भी.


आपने आम भारतीय जीवन की छवियों- बिहार का कट्टा, मध्यवर्गीय रसोई, बड़े-बड़े बर्तनों में साइकल या स्कूटर पर सवार दूधवाले, पुरानी अंबैसडर कार, पीतल केर् बत्तन,पीढा (पाटला) इत्यादि रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं के इस्तेमाल के पीछे क्या अतीत का मोह है?

आप कह सकते हैं कि मैं बिहार का हूं इसलिए कट्टा रिवॉ
ल्वर भी उपस्थित रह है. बचपन से मैंने पीतल के बर्तनों को रसोईघर से धीरे-धीरे गायब होते देखा था. स्टील के बर्तन एक नई चमक, ताकत और समृध्दि के साथ रसोई में प्रवेश पा चुके थे.

भारतीय घर में रसोईघर लगभग एक प्रार्थना घर की तरह है- इस बात को मैं जानता हूं. पिछले कुछ सालों में स्टील के इन बर्तनों की दुनिया से प्रेरित होकर बड़ी-बड़ी पेंटिंग भी बनाई है. हाल में सान जिमेनानों (इटली) में मैंने एक नई तरह का इंस्टॉलेशन बनाया- देयर इज आलवेज सिनेमा. एक पुराने सिनेमाघर को बंद करके एक आधुनिक संग्रहालय में बदल दिया गया था.

मैंने वहां स्टोर रूम में पड़ी पुरानी चीजों का अध्ययन किया और फिर उन्हें कास्ट करवाया. प्रोजेक्टर हो या फिल्म- सब कुछ कास्ट कर दिए गए. फिर उन्हें मूल चीजों के साथ इंस्टाल कर दिया.

इंस्टलेशन आर्ट में इतनी बड़ी सफलता के बावजूद आपमें क्या पेंटिंग के प्रति आत्मीयता बची है?

दुनिया भर में पेंटिंग अभी जीवित है, पचास या साठ प्रतिशत काम पेंटिंग माध्यम से ही सामने आ रहा है. भारतीय जीवन के किसी भी कोने में इंस्टॉलेशन देखा जा सकता है. सड़क पर कोई पत्थर पड़ा है. उस पर गेरुआ रंग लगा हुआ है, तो धार्मिक विश्वास के बावजूद वह विजुअली एक इंस्टॉलेशन आर्ट का नमूना ही कहा जाएगा. पर इंस्टॉलेशन भी हमें बनाना ही पड़ता है जैसे हम एक पेंटिंग बनाते हैं.

मेरे लिए पेंटिंग और मूर्तिशिल्प दोनों बराबर महत्व रखते हैं. पर पेंटिंग बनाने की खुशबू कुछ और ही होती है. तैल रंगों और तारपीन के तेल की खुशबू, ब्रुश निकाल कर रंग कैनवास पर लगाने का एहसास जादुई है. पेंटिंग एक नशा है. उसकी जगह कभी छीनी नहीं जा सकती है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

ब्लॉग आर्काइव

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
GHAZIABAD, Uttar Pradesh, India
कला के उत्थान के लिए यह ब्लॉग समकालीन गतिविधियों के साथ,आज के दौर में जब समय की कमी को, इंटर नेट पर्याप्त तरीके से भाग्दौर से बचा देता है, यही सोच करके इस ब्लॉग पर काफी जानकारियाँ डाली जानी है जिससे कला विद्यार्थियों के साथ साथ कला प्रेमी और प्रशंसक इसका रसास्वादन कर सकें . - डॉ.लाल रत्नाकर Dr.Lal Ratnakar, Artist, Associate Professor /Head/ Department of Drg.& Ptg. MMH College Ghaziabad-201001 (CCS University Meerut) आज की भाग दौर की जिंदगी में कला कों जितने समय की आवश्यकता है संभवतः छात्र छात्राएं नहीं दे पा रहे हैं, शिक्षा प्रणाली और शिक्षा के साथ प्रयोग और विश्वविद्यालयों की निति भी इनके प्रयोगधर्मी बने रहने में बाधक होने में काफी महत्त्व निभा रहा है . अतः कला शिक्षा और उसके उन्नयन में इसका रोल कितना है इसका मूल्याङ्कन होने में गुरुजनों की सहभागिता भी कम महत्त्व नहीं रखती.