शनिवार, 18 सितंबर 2010

मोहल्ला लाइव से साभार

वक्त को छोड़ कर हुसेन के पास सब कुछ इफरात में है

7 MARCH 2010 ONE COMMENT

♦ विष्‍णु खरे

husain with his painting

बहुत नहीं है – भारत में अब तक अल्पज्ञात खाड़ी देश कतर का कुल रकबा ग्यारह हजार चार सौ सैंतीस वर्ग किलोमीटर है और मूल निवासियों और विदेशी कामगारों को मिलाकर आबादी पंद्रह लाख के आसपास होगी। हमारा कच्छ जिला उससे लगभग चौगुना है और दिल्ली के मयूर विहार इलाके में शायद उससे ज्यादा लोग रहते हों। कतर में पेयजल का कोई स्रोत नहीं है, लेकिन उसकी जमीन के नीचे जो तरल प्राकृतिक गैस, जिसे ‘ऑइल’ या ‘पेट्रोल’ कह दिया जाता है, उसका आज का बाजार-दाम चार सौ पचास खरब रुपया बताया जाता है। पिछले वर्ष उसने तीन करोड़ नब्बे लाख टन तेल का निर्यात किया और उसकी प्रति व्यक्ति आय बढ़ कर एक लाख डॉलर हो चुकी है। ये दोनों आंकड़े विश्व में सर्वोच्च बताये जा रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि व्यक्तिगत आमदनी पर कोई आयकर नहीं है।

कतर एक मुसलिम देश है और इस्लाम की जन्मस्थली सऊदी अरब के साथ उसकी भू-सीमा लगी हुई है, लिहाजा वह एक वहाबी सुन्नी मुल्क है – विदेशियों को मिलाकर उसकी शिया आबादी सिर्फ दो प्रतिशत है। वहाबी इस्लाम को सबसे ज्यादा दकियानूस माना जाता है, हालांकि कतर सऊदी अरब जैसा कट्टरपंथी नहीं है। यह जरूर है कि अधिकतर मध्य-पूर्वी मुसलिम देशों की तरह वहां भी पश्चिमी और हमारी पद्धति जैसा प्रजातंत्र नहीं है, होने की उम्मीद भी बहुत कम है।

बेशक, कतर में अपने लेखक, कलाकार, गायक, नर्तक, अभिनेता आदि होंगे, लेकिन वहां की किसी बड़ी सांस्कृतिक गतिविधि या संस्था का पता नहीं चलता। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किन्हीं कतरी प्रतिभाओं ने कोई ख्याति अर्जित की हो, इसके भी प्रमाण बहुत कम मिलते हैं। चित्रकला के क्षेत्र में कुल सोलह कतरी मुसव्विरों के नाम मिलते हैं, और यह दिलचस्प है कि उनमें दो महिलाएं हैं – अफिया अल्कासिरी और फातिमा अतनईमी। सिर्फ एक पुरुष कलाकार फराज दाहम की कृतियां देखने को मुहैया हैं, जिनमें से सारी कागज पर ‘मिक्सड मीडिया’ में बनायी गयी हैं और वे अंतरराष्ट्रीय स्तर की कही जा सकती हैं। राजधानी दोहा में कला का क्या माहौल है हम यह नहीं जानते, लेकिन सदेबी वहां कभी-कभी कला-नीलामी करती है। वहीं राष्ट्रीय संग्रहालय भी है और इस्लामी कला का संग्रहालय भी। आधुनिक चित्रकला और कलाकारों के लिए कतर कोई बहुत ईर्ष्या जगाने वाला पता नहीं है।

तब सवाल यह उठता है कि ‘भारत के पिकासो’ मकबूल फिदा हुसेन ने कतर की नागरिकता क्यों स्वीकार की? क्या उन्होंने इसके लिए कोई अर्जी-दरख्वास्त दी या आरजू मिन्नत की या वह उन्हें एकतरफा मेहरबानी में अता की गयी? यह तो सभी को मालूम है कि जब हिंदुस्तान का कोई मुसलिम नागरिक किसी भी हलके में अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर लेता है तो सारा इस्लाम उस पर सही फख्र करने लगता है और सारे मुसलिम देशों और शासकों की सरहदें और दर उसके लिए ठीक ही खुल जाते हैं – आखिर भारतीय हिंदू क्या ऐसा नहीं करते? शेख हम्माद और शेखा मोजा भी हुसेन के जाती दोस्त और सरपरस्त हैं। शायद उन्हें जब ऐसा लगा होगा कि उनका यह विश्वविख्यात, बुजुर्ग मुसव्विर दोस्त अपने मुल्क में ही मुसीबत में है, तो उसे अपनी बादशाहत में पनाह देना उन्होंने गैर-मुनासिब न समझा।

निस्संदेह भारत में हुसेन पर संकट था और है – था इसलिए कि हिंदू देवी-देवताओं और ‘भारतमाता’ पर बनाये गये उनके चित्रों को लेकर जो धार्मिक दुर्भावनाएं भड़कायी गयीं और जो सैकड़ों मुकदमे दायर किये गये, उनमें बहुत कमी आयी है – दुर्भावनाएं शायद कुछ ठंडी पड़ी हैं और मुकदमे कुल तीन बच रहे हैं। उच्चतर न्यायालयों ने हुसेन की कलाकृतियों पर लगातार एक उदार, सहिष्णु और प्रबुद्ध रुख अपनाया है। देश के सैकड़ों लेखकों, बुद्धिजीवियों, मीडियाकर्मियों, कलाकारों, सक्रियतावादियों और वामपंथी पार्टियों ने हुसेन का बचाव और समर्थन किया है। हुसेन के वकील अदालतों में मौजूद हैं, लेकिन संकट अब भी इसलिए है कि अपनी विवादित कृतियों में हुसेन हमेशा भारत में हैं और उन पर आपत्ति करने वाले, कभी भी, कोई भी आंदोलन खड़ा कर सकने वाले सांप्रदायिक तत्त्व तो इस देश में रहेंगे ही।

आधुनिक भारतीय चित्रकला में दिलचस्पी रखने वाला और हुसेन की कला और जीवन को जानने वाला हर व्यक्ति किसी न किसी तरह से उनकी तमाम विवादित कृतियों को देख चुका है। बेशक वे कुछ हिंदू देवियों को नग्न नहीं, कटि से ऊपर अर्धनग्न बनाते हैं। लेकिन ऐसा वे अश्लीलता से नहीं करते। देवियों के ऐसे वर्णन संस्कृत परंपरा में और हिंदू मूर्तिकला में उनके ऐसे उत्कीर्णन सैकड़ों की तादाद में देखे जा सकते हैं। हुसेन के अधिकांश निंदक उनके देवियों के चित्रों को बार-बार ‘नग्न’ कहते हैं, जबकि उन्होंने किसी देवी को ‘फुल फ्रंटल न्यूडिटी’ (ऐसी नग्नता जिसमें जननेंद्रिय दिखे) में नहीं बनाया। उनके ‘भारतमाता’ के जिस चित्र पर भी ऐसा आरोप लगता है वह भी एक कटि-वस्त्र पहने हुए है। सच तो यह है कि हिंदुओं द्वारा बनाये गये लोकप्रिय ‘कैलेंडर आर्ट’ में देवियों का जो ढका-छिपा शरीर बनाया जाता है वह हुसेन के चित्रों से कहीं ज्यादा उत्तेजक और ‘एरोटिक’ होता है। ‘भारतमाता’ के चेहरे पर तो एक गहरा विषाद देखा जा सकता है, हुसेन की अन्य देवियों के चेहरों और शरीरों से भी कोई उद्दीपन नहीं होता।

हुसेन के एक चित्र के बारे में कहा जाता है कि उसमें दुर्गा सिंह के साथ संभोग कर रही हैं और दूसरे के बारे में यह कि उसमें पार्वती के साथ शिव के वृषभ को वैसा ही दिखाया गया है जबकि दोनों चित्रों में ऐसा बिल्कुल स्पष्ट नहीं है – सामीप्य है, संसर्ग नहीं है। प्रश्न यह भी है कि स्वयं हुसेन ने अपने इन चित्रों के क्या शीर्षक दिये हैं? अगर हुसेन ने वैसे शीर्षक नहीं दिये हैं, या वे शीर्षकहीन हैं तो चित्रों के ‘विषय’ व्याख्याकारों के कलाविहीन, संकुचित या भड़काऊ दिमागों की उपज ही हो सकते हैं। दुर्भाग्यवश, न तो खुद हुसेन ने कोई स्पष्टीकरण दिया है और न ही उनके प्रशंसकों-निंदकों ने उनसे पूछा है।

बदकिस्मती यह भी है कि हमारे समाज में आधुनिक प्रबुद्धों और जनसाधारण के बीच एक लगभग अपार बौद्धिक खाई है। देवी-देवताओं की बात तो बहुत दूर की है; साहित्य, सिनेमा, टेलीविजन, चित्रकला, मूर्तिकला आदि में आप सामान्य स्त्री-पुरुषों को इकट्ठा और अलग-अलग नग्न नहीं दिखा सकते, नारियों को तो कटि से ऊपर भी नहीं। कोई मुसलिम भी हिंदू देवी-देवताओं के अर्धनग्न चित्र देखना-दिखाना नहीं चाहेगा। पश्चिमी समाजों में भी नग्नता की एक आपत्तिजनक सीमा होती है। ‘कामसूत्र’ और खजुराहो आदि की दुहाई देना व्यर्थ और हास्यास्पद है। विडंबना यह है कि ‘खुलेपन’ की वह हिंदू ‘संस्कृति’ भारत में इस्लाम के आने के कारण ही लुप्त हुई – जब हिंदू सांप्रदायिक तत्त्व या ‘आम जनता’ हुसेन पर हमला करते हैं तो वे एक तरह से इस्लाम की ताईद ही कर रहे होते हैं। अर्धनग्नता भले ही हमारे अखबारों और टैब्लॉइड्स में बिछी पड़ी हो, भले ही पश्चिमी मॉडेल्स की उद्दीपक तस्वीरों में, हमारे किसी भी धर्म को मानने वाले समाज में उसकी स्वीकृति कहां है? यह प्रश्न अलग है कि हमें वैसा करना चाहिए या नहीं, लेकिन क्या हमने ‘कलात्मक’ नग्नता को आम भारतीय को कभी समझाया? कलाओं या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाइयां देकर हम देश को उसकी सदियों की नैतिक, सामाजिक, धार्मिक वर्जनाओं से रातोंरात मुक्त नहीं कर सकते।

एक प्रश्न यह भी है कि अगर हमारी प्रबुद्धता की एकमात्र कसौटी नारी को नग्न या संभोगरत दिखाना ही है तो हम (पुरुष) यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करते कि प्रबुद्ध और आम नारियों की इस मसले पर क्या राय है? औरत कलाओं में अपने को कितनी और कैसे नग्न और उपभुक्त देखना चाहती है? क्या किसी स्त्री को हाथी, वृषभ, श्वान और वानर के साथ संभोग करना या वैसा करते दिखाया जाना, श्रेयस्कर और कलात्मक लगता है? पुरुष की फंतासियों का वह हिस्सा हो, क्या उसकी फंतासियां भी इतनी फ्रॉयडीय हैं? यह भी विचित्र है कि कोई भी पुरुष कलाकार कोई ऐसा चित्र नहीं बनाता, जिसमें कोई पशु मर्द के साथ गुदा-मैथुन कर रहा हो – उसका सारा यौन-नजला स्त्री शरीर पर ही तारी होता है।

दरअसल, हुसेन ही नहीं, सारे ऐसे ‘कृतिकारों’ का मनोविश्लेषण होना चाहिए जो ‘अश्लीलता’ या ‘नग्नता’ के आरोपों को निमंत्रित करते हैं। उनके वे सारे उद्देश्य जांचे जाने चाहिए, जिनके लिए वे वैसा रचते हैं जैसा कि रचते हैं। हुसेन के साथ एक अतिरिक्त समस्या, जो भारत में केंद्रीय है, यह है कि वे मुसलिम होते हुए हिंदू देवी-देवताओं के ‘आपत्तिजनक’ चित्र बनाते हैं। यह प्रश्न बेकार है कि वे हजरत मुहम्मद और उनके परिवार और अन्य मुसलिम सूफी-संतों के साथ ऐसा क्यों नहीं करते। शायद इस्लामी परंपरा उन्हें इस तरह प्रेरित नहीं करती या उनकी इच्छा ही नहीं होती। हुसेन सिर्फ शिया नहीं हैं, उनमें भी बोहरा उप-संप्रदाय से हैं, जिसकी आलोचना बोहरा बुद्धिजीवी असगर अली इंजीनियर करते रहे हैं और उन पर जानलेवा हमले हो चुके हैं। हुसेन अपने बोहरा संप्रदाय के वर्तमान दाइल मुतलक सैयदना मुहम्मद बुरहानुद्दीन की शबीह भी शायद नहीं बनाना चाहते। लेकिन अपनी एक फिल्म में अभिनेत्री तब्बू द्वारा अभिनीत किरदार को ‘नूरुन्नलानूर’ कहलवा कर, जो कुरान में अल्लाह का एक संबोधन है, वे अपनी उंगलियां जला चुके हैं और उन्हें मुसलिम समाज से माफी मांगनी पड़ी है। यानी इसमें कुछ भी नया नहीं है कि हिंदुओं और मुसलमानों को उनसे शिकायत हो और उन्हें इन दोनों से, ये दोनों पक्ष एक-दूसरे के आदी नहीं हुए हैं।

अपनी कला प्रेरणा के लिए एक कलाकार अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा के साथ संसार की किसी भी वैसी परंपरा में आवाजाही करने के लिए आजाद है, लेकिन वह उन परायी परंपराओं से कितनी आजादी बरते, खासकर अगर वह आज भी जीवित हों तो, यह एक अहम सवाल है। आप प्राचीन बैबिलोनी, मिस्री, यूनानी, रूसी आदि की ‘मृत’ परंपराओं, धर्मों, मिथकों के साथ जो भी करना चाहें सो करें, अगर आप (यहां प्रासंगिक) हिंदू मिथकों में जाते हैं तो उनके जितने भी संस्करण हों उनका आपको आदर करना होगा, क्योंकि दुर्भाग्यवश यह करोड़ों लोगों की आस्था का प्रश्न है। सभी जानते हैं कि हनुमान को नैष्ठिक ब्रह्मचारी माना जाता है। वे सीता को माता मानते थे, जिनका उन्होंने स्पर्श तक नहीं किया। उन्होंने कभी विवस्त्र सीता को कभी अपनी जांघ पर बैठाया हो, या अपनी लांगूल पर, जैसा कि हुसेन ने चित्रित किया है। ऐसा राम कथा की किसी देशी-विदेशी परंपरा में नहीं मिलता – लांगूल पर भी ऐसे कि वह सीता के विवस्त्र नितंबों के बीच से होती हुई उनके स्तनों तक जा रही हो – इसमें कौन-सा मिथक-तथ्य, कौन-सा प्रतीक और कौन-सी कला है? कला के स्तर पर भी हुसेन के ये चित्र निम्न या मझोले दर्जे के हैं। स्पष्ट है कि यहां हुसेन के साथ कोई मनोवैज्ञानिक समस्या है। हुसेन के सीता-हनुमान चित्र देख कर लगता है कि जानकी के साथ सिर्फ रावण और राम ने अन्याय नहीं किया है। क्या इसके लिए इंसाफ मांगना ‘अकलात्मक’, ‘हिंदुत्ववादी’, ‘सावरकरी’ फासीवाद है?

हम जानते हैं कि हुसेन के क्षमा मांगने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि एक ओर वे अपनी विवादित कृतियों को सिर्फ ‘रिग्रेट’ करते हैं और दूसरी ओर हिंदू सांप्रदायिक तत्त्व येन-केन-प्रकारेण इस मसले को पुनर्जीवित करते रहेंगे। लेकिन खुद हुसेन बौद्धिक रूप से कुछ दुर्बल, दुविधाग्रस्त और दोमुंहे लगते हैं। वे कहते हैं कि निन्यानवे प्रतिशत भारतीय उनके पक्ष में हैं, सिर्फ एक प्रतिशत का ‘लूनैटिक फ्रिंज’ उनके खिलाफ है। हम इसमें न जाएं कि देश के कितने लोग आधुनिक चित्रकला देखते-सराहते हैं, लेकिन अगर इतना बड़ा बहुमत हुसेन के साथ है और निस्संदेह प्रबुद्ध बहुमत तो उनके साथ है ही, तो वे कतर में क्यों हैं? तसलीमा नसरीन अज्ञातवास में अवश्य हैं, लेकिन उनमें भारत लौटने का साहस है। सलमान रुश्दी पर जानलेवा फतवा अब भी नाजिल है, लेकिन वे सक्रिय हैं। अयान हिर्सी अली जिनके सिर पर इनाम है, पिछले दिनों भारत आयी थीं। हजारों प्रबुद्ध मुसलिम लेखक, कलाकार, फिल्मकार, बुद्धिजीवी जान की बाजी लगा कर इस्लामी कठमुल्लेपन के खिलाफ लगातार लिख, बोल, रच रहे हैं। ईरान में भयावह दमन है, लेकिन औरत-मर्द दोनों उसके विरुद्ध सक्रिय हैं। भाजपा शासन के दौरान हजारों गैर-सांप्रदायिक बुद्धिजीवी मुश्किल में रहते ही हैं। कतर कन्ने क्या है, जो मेरे घर में नाहीं?

हुसेन का अधिकांशत: पक्ष लिया ही जाना चाहिए। पर जो यह कह रहे हैं कि उन्होंने हिंदू सांप्रदायिक तत्त्वों और भारतीय न्याय व्यवस्था से आजिज आकर कतर की नागरिकता ली है, वे अंशत: सही हैं, अव्वल तो शायद यही गलत है कि उन्होंने कतरी शहरी बनने के लिए अर्जी दी होगी, शेख हम्माद और शेखा मोजा ने इसकी तजवीज की होगी। हुसेन भी जानते होंगे कि हिंदुत्ववादी तत्त्वों से परेशान होकर एक मुसलिम देश में शरण लेना उनके खिलाफ ही जाएगा, क्योंकि और कोई भी गैर-मुसलिम, पश्चिमी देश उन्हें बखुशी पनाह दे देता।

माजरा यह है कि शेखा मोजा एक ऐसा संग्रहालय स्थापित करना चाहती हैं, जिसमें चित्रों के जरिये सुमेरी सभ्यता के बृहत्तर क्षेत्र में पनपी अन्य संबद्ध (शामी, यहूदी, ईसाई, इस्लामी) सभ्यताओं का विकास दिखाया गया हो। हुसेन कहते हैं कि दरअसल यह उनकी तीन चित्र परियोजनाओं में से एक है – दूसरी दो हैं मुअन-जोदड़ो से लेकर मनमोहन सिंह तक का भारतीय इतिहास (जो साहित्य अकादेमी के ‘फ्राम नेहरू टु नारंग’ शीर्षक इतिहास की याद दिलाता है) और भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों का इतिहास, जो अगले वर्ष अपनी जन्मशती पूरी करेगा। लेकिन इन दोनों के लिए प्रायोजक मिलना असंभव था। शेखा मोजा की दिलचस्पी इनमें भला क्यों होती, वे मध्य-पूर्व की प्राचीन से लेकर अधुनातन सभ्यताओं के इतिहास का चित्र-संग्रहालय चाहती थीं। जाहिर है कि उनके लिए एक मुसलिम चित्रकार ही भरोसेमंद हो सकता था, अगर वह हुसेन हो तो कहना ही क्या। वे पिचानवे के हो चुके हैं, लेकिन संसार का हर कला प्रेमी चाहेगा कि वे कतर की ही नहीं, दोनों भारतीय परियोजनाओं को भी मुकम्मिल करने तक और उसके बाद भी जिएं। अगर हुसेन इन्हें अंजाम दे पाएं या सिर्फ कतर की योजना को, तो यह विश्व-कला के इतिहास का एक सबसे बड़ा और रोमांचक अध्याय होगा। हुसेन अमर हैं, लेकिन कतर उन्हें और अमरत्व के तमाम संसाधन देगा। एक वक्त को छोड़ कर हुसेन के पास सब कुछ इफरात में है।(साभार : जनसत्ता, 7 मार्च 2010)

Vishnu Khare Image(विष्‍णु खरे। हिंदी कविता के एक बेहद संजीदा नाम। अब तक पांच कविता संग्रह। पिछले दिनोंभारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार पर टिप्‍पणी के चलते खासी चर्चा में रहे। सिनेमा के गंभीर अध्‍येता-आलेचक। हिंदी के पाठकों को टिन ड्रम के लेखक गुंटर ग्रास से परिचय कराने का श्रेय। पत्रकारिता में भी लंबा समय गुजारा।)

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GHAZIABAD, Uttar Pradesh, India
कला के उत्थान के लिए यह ब्लॉग समकालीन गतिविधियों के साथ,आज के दौर में जब समय की कमी को, इंटर नेट पर्याप्त तरीके से भाग्दौर से बचा देता है, यही सोच करके इस ब्लॉग पर काफी जानकारियाँ डाली जानी है जिससे कला विद्यार्थियों के साथ साथ कला प्रेमी और प्रशंसक इसका रसास्वादन कर सकें . - डॉ.लाल रत्नाकर Dr.Lal Ratnakar, Artist, Associate Professor /Head/ Department of Drg.& Ptg. MMH College Ghaziabad-201001 (CCS University Meerut) आज की भाग दौर की जिंदगी में कला कों जितने समय की आवश्यकता है संभवतः छात्र छात्राएं नहीं दे पा रहे हैं, शिक्षा प्रणाली और शिक्षा के साथ प्रयोग और विश्वविद्यालयों की निति भी इनके प्रयोगधर्मी बने रहने में बाधक होने में काफी महत्त्व निभा रहा है . अतः कला शिक्षा और उसके उन्नयन में इसका रोल कितना है इसका मूल्याङ्कन होने में गुरुजनों की सहभागिता भी कम महत्त्व नहीं रखती.