सोमवार, 31 जनवरी 2011

Warli Paintings-

वार्ली लोक चित्रकला


महाराष्‍ट्र अपनी वार्ली लोक चित्रकला के लिए प्रसिद्ध है। वार्ली एक बहुत बड़ी जनजाति है जो पश्‍चिमी भारत के मुम्‍बई शहर के उत्तरी बाह्मंचल में बसी है। भारत के इतने बड़े महानगर के इतने निकट बसे होने के बावजूद वार्ली के आदिवासियों पर आधुनिक शहरीकरण कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। 1970 के प्रारम्‍भ में पहली बार वार्ली कला के बारे में पता चला। हालांकि इसका कोई लिखित प्रमाण तो नहीं मिलता कि इस कला का प्रारम्‍भ कब हुआ लेकिन दसवीं सदी ई.पू. के आरम्भिक काल में इसके होने के संकेत मिलते हैं। वार्ली, महाराष्‍ट्र की वार्ली जनजाति की रोजमर्रा की जिंदगी और सामाजिक जीवन का सजीव चित्रण है। यह चित्रकारी वे मिट्टी से बने अपने कच्‍चे घरों की दीवारों को सजाने के लिए करते थे। लिपि का ज्ञान नहीं होने के कारण लोक वार्ताओं (लोक साहित्‍य) के आम लोगों तक पहुंचाने को यही एकमात्र साधन था। मधुबनी की चटकीली चित्रकारी के मुकाबले यह चित्रकला बहुत साधारण है।
चित्रकारी का काम मुख्‍य रूप से महिलाएं करती है। इन चित्रों में पौराणिक पात्रों, अथवा देवी-देवताओं के रूपों को नहीं दर्शाया जाता बल्कि सामाजिक जीवन के विषयों का चित्रण किया जाता है। रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं के साथ-साथ मनुष्‍यों और पशुओं के चित्र भी बनाए जाते हैं जो बिना किसी योजना के, सीधी-सादी शैली में चित्रित किए जाते हैं। महाराष्‍ट्र की जनजातीय (आदिवासी) चित्रकारी का यह कार्य परम्‍परागत रूप से वार्ली के घरों में किया जाता है। मिट्टी की कच्‍ची दीवारों पर बने सफेद रंग के ये चित्र प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों की तरह दिखते हैं और सामान्‍यत: इनमें शिकार, नृत्‍य फसल की बुवाई, फसल की कटाई करते हुए व्‍यक्ति की आकृतियां दर्शाई जाती हैं।

शैली की दृष्टि से देखें तो उनकी पहचान यही है कि ये साधारण सी मिट्टी के बेस पर मात्र सफेद रंग से की गई चित्रकारी है जिसमें यदा-कदा लाल और पीले बिन्‍दु बना दिए जाते हैं। यह सफेद रंग चावल को बारीक पीस कर बनाया गया सफेद चूर्ण होता है। रंग की इस सादगी की कमी इसके विषय की प्रबलता से ढक जाती है। इसके विषय बहुत ही आवृत्ति और प्रतीकात्‍मक होते हैं। वार्ली के पालघाट, शादी-विवाह के भगवान को दर्शाने वाले बहुत से चित्रों में प्राय: घोड़े को भी दिखाया जाता है जिस पर दूल्‍हा-दुल्‍हन सवार होते हैं। यह चित्र बहुत पवित्र माना जाता है और इसके बाद विवाह सम्‍पन्‍न नहीं हो सकता है। ये चित्र स्‍थानीय लोगों की सामाजिक और धार्मिक अभिलाषाओं को भी पूरा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि ये चित्र भगवान की शक्तियों का आह्वान करते हैं।
वार्ली के चित्रों में सीधी लाइन शायद ही देखने को मिलती है। कई बिन्‍दुओं और छोटी-छोटी रेखाओं (डेश) को मिलाकर एक बड़ी रेखा बनाई जाती है। हाल ही में शिल्‍पकारों ने अपने चित्रों में सीधी रेखाएं खींचनी शुरू कर दी है। इन दिनों तो पुरुषों ने भी चित्रकारी शुरू कर दी है और वे यह चित्रकारी प्राय: कागज़ पर करते हैं जिनमें वार्ली की सुन्‍दर परम्‍परागत तस्‍वीरें और आधुनिक उपकरण जैसे कि साइकिल आदि बनाए जाते हैं। कागज़ पर की गई वार्ली चित्रकार काफी लोकप्रिय हो गई है और अब पूरे भारत में इसकी बिक्री होती है। आज, कागज़ और कपड़े पर छोटी-छोटी चित्रकारी की जाती है पर दीवार पर चित्र अथवा बड़े-बड़े भित्ति चित्र ही देखने में सबसे सुन्‍दर लगते हैं जो वार्लियों के एक विशाल और जादुई संसार की छवि को प्रस्‍तुत करते हैं। वार्ली आज भी परम्‍परा से जुड़े हैं लेकिन साथ ही वे नए विचारों को भी ग्रहण कर रहे हैं जो बाज़ार की नई चुनौतियों का सामना करने में उनकी मदद करते हैं।
डॉ.लाल रत्नाकर
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500;Warli Mud House



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मधुबनी 
Tribal Art from India Warli Paintings Wall Decor 18 x 39 inches (warli144)


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 Wallpapers · 3D/Abstract 
 Warli Art
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शनिवार, 8 जनवरी 2011

सैयद हैदर रज़ा भारत वापस लौट आये हैं .

अमर उजाला से साभार-

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं
अशोक वाजपेयी
Story Update : Saturday, January 08, 2011    7:42 PM
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सैयद हैदर रजा वापस भारत आ गए हैं। भारत जिसे कभी उन्होंने भुलाया ही नहीं था। या जहां से वे कभी गए ही नहीं थे। वे बार-बार लौटकर यहां आते थे। वे बार बार यहां आकर बसने की बात भी करते रहे हैं। अंततः अठारह दिसंबर को उन्होंने जब अपने दोस्तों को अलविदा कहने के लिए रू द शरोन्न के अपने आवास पर पार्टी दी तो सुनिश्चित हो गया कि अब फ्रांस को छोड़कर भारत आने का वक्त हो गया है। ‘ऊधौ मोहिं ब्रज विसरत नाहीं’ का यह भाव कोई नास्टैल्जिया नहीं है, क्योंकि वे हर बरस यहां दो तीन महीने के लिए आते रहे हैं। इसलिए मुझे लगता है कि उनका यहां आना किसी नॉस्टैल्जिया की पुकार नहीं बल्कि अपना अंतिम समय अपने देश में बिताने की आकांक्षा का पूरा होना है।

यहां के जंगल, पहाड़, खेत उन्हें शुरू से ही प्रिय रहे हैं, लेकिन यह शस्य श्यामलाम सुजलाम सुफलाम धरा ही उनके आकर्षण की वजह नहीं है। यहां के कलाजगत से भी उनका गहरा जुड़ाव रहा है। उन्होंने दस साल पहले ही रजा फाउंडेशन स्थापित किया था और युवा प्रतिभाओं को पुरस्कृत और सम्मानित करने की पहल की थी जो किसी और कलाकार ने नहीं की। स्पष्ट है कि यहां के युवा कलाकारों के प्रति उनका अनुराग बहुत गहरा और पुराना है। एक और बात है जो उन्हें आकर्षित करती है। उनके हिसाब से इस समय जैसी सक्रियता भारतीय कला दृश्य पर है, वैसी बहुत कम देशों में है। यहां की प्रकृति, पहाड़ और जंगल तो उन्हें आकर्षित करते ही रहे हैं। वे योजना बना रहे हैं कि ठंड थोड़ी कम हो जाए तो अपने पुराने अंचल में जाएंगे। मंडला, दमोह के अपने इलाके में भ्रमण करेंगे।

एक सवाल है कि अभी तक तो रजा अपने स्मृति के देश में रहते रहे हैं। अब यथार्थ के देश में रहकर उनके सृजन में क्या बदलाव आने की संभावना है? मुझे लगता है कि इस उम्र में आकर परिवर्तन होना थोड़ा कठिन है। दूसरी बात यह कि कभी भी यथार्थ स्मृति से विच्छिन्न तो होता नहीं है। हम जिस देश में रहते हैं वह आधी स्मृति आधा यथार्थ होता है। उसमें कोई बुनियादी फर्क तो आता नहीं है। उनके मन में जो भारत है, वह यहां है कि नहीं है, कितना है, यह तो वक्त ही बताएगा। अभी से कुछ कहना मुश्किल है, अभी तो उन्हें आए हुए हफ्ता ही हुआ है। उनको यह भी अंदाजा होगा कि यथार्थ शायद उससे अलग हो, जैसा उन्होंने सोच रखा है। हालांकि खुद रजा भी इस बात को लेकर कुछ बेचैन हैं। क्योंकि एक लंबा अरसा उन्होंने जिस तरह की जीवन शैली में गुजारा है, वैसे में एक नए माहौल में इस उम्र में खुद को व्यवस्थित कर पाना कितना संभव होगा, यह तो समय ही बताएगा।

यहां के कला जगत में उनकी उपस्थिति हमेशा ही बहुत प्रेरक और निजी उपस्थिति रही है। लोग उनसे उत्साह और प्रेरणा पाते रहे हैं। अब उनके यहां स्थायी रूप से आ जाने पर लोगों की प्रसन्नता स्वाभाविक ही है। अब रजा यहां आ गए हैं, तो हम सब की कामना है कि हमारे समय के एक और महान चित्रकार हुसैन की भी स्वदेश वापसी हो। रजा भी यही चाहते हैं। रजा जब फ्रांस में थे तो हमारा भी उस देश से अलग ही नाता जुड़ा हुआ था। साल में दो बार वे मुझे फ्रांस बुलाते थे, एक बार सर्दियों में तो दूसरी बार गर्मियों में। इस बार भी जब उन्होंने 18 दिसंबर को अपने दोस्तों को अलविदा कहने के लिए पार्टी दी, तो मैं भी वहां मौजूद था। यह रजा साहब के व्यक्तित्व का चुंबक ही था कि उस कड़ाके की ठंड में भी पचास से भी अधिक उनके मित्र चाहने वाले वहां जुटे। इनमें वहां भारत के राजदूत राजन मथाई भी थे। हों क्यों नहीं! रजा भी तो इतने लंबे समय से वहां पर भारत के कला-दूत की भूमिका निभाते रहे हैं। अब यहां आकर वे शायद फ्रांस के अपने अनुभवों को चित्रबद्ध कर सकेंगे। अगर ऐसा हुआ तो हम इस कला मनीषी के एक और कला अनुभव से रूबरू हो सकेंगे।

रजा का समय
मैं उठाता हूं नाम
मध्यप्रदेश केवन भूगोल से
ककैया, बाबरिया, बचई, मंडला, दमोह, नरसिंहपुर
और वे तुम्हारे आकाश में
ओस भीगी वनस्पतियों से
झिलमिलाते-जगमगाते हैं-
जैसे तुम्हारी आदिम आत्मा की वर्णमाला के कुछ आलोकित अक्षर हों
मुझे सुनाई नहीं देती
बचपन के जंगल से घर की दरार में दाखिल होती सांप की सरसराहट
या बरामदे में सरकता बिच्छू का डंक
लेकिन प्रार्थनाओं की तरह छा जाते हैं
देहाती स्कूल केबरामदे में रटे जा रहे पहाड़े
या एक दुबली सी हिंदी पाठ्यपुस्तक से
दुहराए जा रहे
तुलसी कबीर रहीम के भक्तिपद्य।
जंगल में रहते हैं साथ भय और सुंदरता
घर केआत्मीय अंधेरों में जब-तब कौंध जाते जुगनू।
जंगल में फैली धुंध या कि
पत्तियों के जलने से फैल गया धुआं,
जिसमें से एक फारेस्टगार्ड के साथ
तुम जा रहे हो मंडला में महात्मा गांधी को देखने
एक जनसभा को संबोधित करते हुए-
और बरसों बाद जैसे वही छबि रोकती है
तुम्हें अपने दूसरे भाइयों
और पहली पत्नी की तरह
बंटवारे के बाद उस तरफ जाने से।
तुम्हारे सख्त और ईमानदार पिता
सिखाते हैं तुम्हें पांच वक्त की नमाज की महिमा,
और बगल के हनुमान मंदिर में तुम सुनते हो रामचरित मानस का पाठ-
पैरिस के चर्च में तुम झुकते हो प्रार्थना मेंः
कौन जानता था, शायद तुम भी नहीं,
कि एक दिन रंग और आकार तुम्हारी प्रार्थना के मौन शब्द होंगे,
कि जंगल में चहचहाती चिड़ियां, जब-तब गांव वालों को भयाक्रांत करने के लिए तेंदुए की हुंकार
और अंधेरी रात में आती नदी में चढ़ती बाढ़ के पानी की आवाज
सब मिलाकर एक प्रार्थना थीं
कि तुम्हें रचने का
खोजने और पाने का,
जहां भी रहो
वहां दूसरों के काम आने का वरदान मिले।

ये जो रजा हैं...
22 फरवरी 1922 को मध्यप्रदेश के मंडला जिले के बाबरिया में जन्मे सैयद हैदर रजा अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कलाकार हैं। उनकी कृतियां करोड़ों में बिकती हैं। गत जून में क्रिस्टीज की नीलामी में उनकी एक पेंटिंग ‘सौराष्ट्र’ 16.42 करोड़ में बिकी। स्कूली शिक्षा दमोह के गवर्नमेंट हाई स्कूल से पूरी करने के बाद उन्होंने नागपुर स्कूल ऑफ आर्ट, नागपुर और जे जे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से कला शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद 1950 में वे फ्रांस चले गए और उसी देश को अपनी कर्मस्थली बना लिया। मुंबई में उन्होंने प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप की स्थापना भी की थी। उनकी कृतियों में भारतीय संस्कृति का खासा प्रभाव है।

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
GHAZIABAD, Uttar Pradesh, India
कला के उत्थान के लिए यह ब्लॉग समकालीन गतिविधियों के साथ,आज के दौर में जब समय की कमी को, इंटर नेट पर्याप्त तरीके से भाग्दौर से बचा देता है, यही सोच करके इस ब्लॉग पर काफी जानकारियाँ डाली जानी है जिससे कला विद्यार्थियों के साथ साथ कला प्रेमी और प्रशंसक इसका रसास्वादन कर सकें . - डॉ.लाल रत्नाकर Dr.Lal Ratnakar, Artist, Associate Professor /Head/ Department of Drg.& Ptg. MMH College Ghaziabad-201001 (CCS University Meerut) आज की भाग दौर की जिंदगी में कला कों जितने समय की आवश्यकता है संभवतः छात्र छात्राएं नहीं दे पा रहे हैं, शिक्षा प्रणाली और शिक्षा के साथ प्रयोग और विश्वविद्यालयों की निति भी इनके प्रयोगधर्मी बने रहने में बाधक होने में काफी महत्त्व निभा रहा है . अतः कला शिक्षा और उसके उन्नयन में इसका रोल कितना है इसका मूल्याङ्कन होने में गुरुजनों की सहभागिता भी कम महत्त्व नहीं रखती.