वार्ली लोक चित्रकला
महाराष्ट्र अपनी वार्ली लोक चित्रकला के लिए प्रसिद्ध है। वार्ली एक बहुत बड़ी जनजाति है जो पश्चिमी भारत के मुम्बई शहर के उत्तरी बाह्मंचल में बसी है। भारत के इतने बड़े महानगर के इतने निकट बसे होने के बावजूद वार्ली के आदिवासियों पर आधुनिक शहरीकरण कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। 1970 के प्रारम्भ में पहली बार वार्ली कला के बारे में पता चला। हालांकि इसका कोई लिखित प्रमाण तो नहीं मिलता कि इस कला का प्रारम्भ कब हुआ लेकिन दसवीं सदी ई.पू. के आरम्भिक काल में इसके होने के संकेत मिलते हैं। वार्ली, महाराष्ट्र की वार्ली जनजाति की रोजमर्रा की जिंदगी और सामाजिक जीवन का सजीव चित्रण है। यह चित्रकारी वे मिट्टी से बने अपने कच्चे घरों की दीवारों को सजाने के लिए करते थे। लिपि का ज्ञान नहीं होने के कारण लोक वार्ताओं (लोक साहित्य) के आम लोगों तक पहुंचाने को यही एकमात्र साधन था। मधुबनी की चटकीली चित्रकारी के मुकाबले यह चित्रकला बहुत साधारण है।
चित्रकारी का काम मुख्य रूप से महिलाएं करती है। इन चित्रों में पौराणिक पात्रों, अथवा देवी-देवताओं के रूपों को नहीं दर्शाया जाता बल्कि सामाजिक जीवन के विषयों का चित्रण किया जाता है। रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं के साथ-साथ मनुष्यों और पशुओं के चित्र भी बनाए जाते हैं जो बिना किसी योजना के, सीधी-सादी शैली में चित्रित किए जाते हैं। महाराष्ट्र की जनजातीय (आदिवासी) चित्रकारी का यह कार्य परम्परागत रूप से वार्ली के घरों में किया जाता है। मिट्टी की कच्ची दीवारों पर बने सफेद रंग के ये चित्र प्रागैतिहासिक गुफा चित्रों की तरह दिखते हैं और सामान्यत: इनमें शिकार, नृत्य फसल की बुवाई, फसल की कटाई करते हुए व्यक्ति की आकृतियां दर्शाई जाती हैं।
शैली की दृष्टि से देखें तो उनकी पहचान यही है कि ये साधारण सी मिट्टी के बेस पर मात्र सफेद रंग से की गई चित्रकारी है जिसमें यदा-कदा लाल और पीले बिन्दु बना दिए जाते हैं। यह सफेद रंग चावल को बारीक पीस कर बनाया गया सफेद चूर्ण होता है। रंग की इस सादगी की कमी इसके विषय की प्रबलता से ढक जाती है। इसके विषय बहुत ही आवृत्ति और प्रतीकात्मक होते हैं। वार्ली के पालघाट, शादी-विवाह के भगवान को दर्शाने वाले बहुत से चित्रों में प्राय: घोड़े को भी दिखाया जाता है जिस पर दूल्हा-दुल्हन सवार होते हैं। यह चित्र बहुत पवित्र माना जाता है और इसके बाद विवाह सम्पन्न नहीं हो सकता है। ये चित्र स्थानीय लोगों की सामाजिक और धार्मिक अभिलाषाओं को भी पूरा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि ये चित्र भगवान की शक्तियों का आह्वान करते हैं।
वार्ली के चित्रों में सीधी लाइन शायद ही देखने को मिलती है। कई बिन्दुओं और छोटी-छोटी रेखाओं (डेश) को मिलाकर एक बड़ी रेखा बनाई जाती है। हाल ही में शिल्पकारों ने अपने चित्रों में सीधी रेखाएं खींचनी शुरू कर दी है। इन दिनों तो पुरुषों ने भी चित्रकारी शुरू कर दी है और वे यह चित्रकारी प्राय: कागज़ पर करते हैं जिनमें वार्ली की सुन्दर परम्परागत तस्वीरें और आधुनिक उपकरण जैसे कि साइकिल आदि बनाए जाते हैं। कागज़ पर की गई वार्ली चित्रकार काफी लोकप्रिय हो गई है और अब पूरे भारत में इसकी बिक्री होती है। आज, कागज़ और कपड़े पर छोटी-छोटी चित्रकारी की जाती है पर दीवार पर चित्र अथवा बड़े-बड़े भित्ति चित्र ही देखने में सबसे सुन्दर लगते हैं जो वार्लियों के एक विशाल और जादुई संसार की छवि को प्रस्तुत करते हैं। वार्ली आज भी परम्परा से जुड़े हैं लेकिन साथ ही वे नए विचारों को भी ग्रहण कर रहे हैं जो बाज़ार की नई चुनौतियों का सामना करने में उनकी मदद करते हैं।
डॉ.लाल रत्नाकरhttp://www.flickr.com/photos/60661484@N00/873843546/sizes/o/in/photostream/
मधुबनी